धार्मिक संस्था अध्यात्म विज्ञान सत्संग केन्द्र, जोधपुर के संस्थापक व संरक्षक हैं रामलाल सियाग। इनके प्रशंसक इन्हें गुरुदेव के नाम से संबोधित करते हैं। सियाग भारतीय योगदर्शन और कश्मीरी शैव सिद्धांत में सिद्ध बताये जाते हैं। इसके साथ ही कुण्डलिनी जागृत करने का दावा करते हैं। इनके भक्तों तो यह भी कहते हैं कि नाम-जप और ध्यान से एड्स व कैंसर जैसी असाध्य बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं। सियाग के इन्हीं दावों और अन्य विषयों पर उनसे बातचीत...
सारी दुनिया के वैज्ञानिक और चिकित्सक एड्स को लाइलाज बता रहे है, जबकि आप ने दावा किया है कि एड्स की महामारी से भारत को मुक्ति मिल जाएगी, यह कैसे संभव होगा?
भारतीय योग दशन में वर्णित ‘योग’ का मूल उद्देश्य ‘मोक्ष’ है, परन्तु मानव को उस स्थिति तक विकसित होने के लिए उसके त्रिविध ताप (आदि दैहिक, आदि भौतिक और आदि दैविक) शान्त होना आवश्यक है। सिद्धयोग के जरिए ऐसा किया जा सकता है। तो, जिन रोगों को भौतिक विज्ञान असाध्य मानता है, उन रोगों से सिद्धयोग मुक्ति दिला सकता है। सही मायनों में देखा जाए, तो सिद्ध योग में कुछ भी लाइलाज नहीं है। इस बारे में महायोगी श्री मत्स्येन्द्रनाथजी महाराज ने कहा है कि योग वेद रूपी कल्पतरू का ‘अमरफल’ है जो साधक के त्रिविध तापों के शमन का क्रियात्मक पथ बताता है। पिछले कई वर्षों से इस सिद्ध योग के जरिए ध्यान साधना कर हजारों रोगी असाध्य समझे जाने वाले रोगों जैसे-एड्स, कैंसर, हेपेटाइटिस, अस्थमा, गठिया, लकवा, हिमोफिलिया इत्यादि से पूर्ण मुक्ति पा चुके हैं। चिकित्सा विज्ञान के परीक्षणों से भी उनके रोग मुक्त होने की पुष्टि हुई है। इसके बाद ही मैंने अपने शिष्यों को आदेष दिया कि वे देष भर में प्रचार करके अत्यन्त पीड़ादायक जीवन जी रहे रोगियों को सूचित करें कि सिद्धयोग द्वारा एड्स सहित सभी रोगों से मुक्ति संभव है, और वह भी बिना एक रूपया खर्च किए।
लेकिन आप तो पूरे देश को सिद्धयोग से एड्स मुक्त करने की बात करते हैं?
देखिए, एड्स संपूर्ण मानवता के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है, इसलिए पूरी दुनिया उससे डर रही है। सिद्धयोग से सभी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रोग ठीक हो रहे हैं, किंतु एड्स का हल्ला ज्यादा है, क्योंकि यह कई अफ्रीकी देषों की युवा पीढ़ी को संक्रमित कर वहां के सामाजिक और आर्थिक ढंाचे को तहस नहस कर चुका है। भारत में भी यह तेजी से फैल रहा है। एड्स ठीक होने पर वैज्ञानिक गहराई में जाएंगे तो पायेंगे कि यह भारतीय योग दर्शन के कारण संभव हुआ है। मैं असंख्य सिद्ध गुरुओं की परंपरा को ही आगे बढ़ा रहा हूँ। सिद्धयोग की परंपरा अनादिकाल से भारत में चली आ रही है।
सिद्धयोग क्या है ? और अन्य प्रकार के योग जैसे ध्यान योग, हठ योग, जप योग इत्यादि से किस प्रकार भिन्न है ?
सिद्ध योग किसी सिद्ध गुरु द्वारा शक्तिपात करने के परिणामस्वरूप जाग्रत हो चुकी मातृषक्ति कुण्डलिनी द्वारा संचालित होता है, जबकि अन्य सभी प्रकार के योग मानवीय प्रयास से होते हैं। सिद्धयोग में अन्य सभी योग समाहित रहते है, अतः हमारे ऋषियों ने इसे ‘महायोग’ भी कहा है। शैव दर्शन के अनुसार, गुरु-शिष्य परंपरा में दीक्षा का विधान है। सभी प्रकार की दीक्षाओं में शक्तिपात दीक्षा को सर्वोत्तम माना गया हैं इसमें सिद्धगुरु षिष्य को चार प्रकार से दीक्षा दे सकता है -
1. अपने दाहिने हाथ से षिष्य के आज्ञा चक्र को छू कर 2. मंत्र द्वारा, 3. दृष्टि द्वारा 4. योग्य पात्र केवल गुरु की मूर्ति या तस्वीर से ही पूर्णता प्राप्त कर लेता है, एकलव्य और कबीर इसके उदाहरण है।
चेतन मंत्र जाग्रत कुण्डलिनी साधक का शरीर, प्राण, मन और बुद्धि अपने अधीन कर लेती है और ध्यान की अवस्था में साधक को सभी प्रकार की यौगिक क्रियाएँ जैसे आसन, बंध, मुद्राएं एंव प्राणायाम सीधे अपने निंयत्रण में स्वयं करवाती है। मैं इसी की दीक्षा देता हूं. साधक चाहकर भी उसमें कोई हस्त़क्षेप नही कर सकता। वह न तो कोई यौगिक क्रिया प्रारम्भ कर सकता है, और न ही उसे रोक सकता है। इस प्रकार जो योग करवाया जाता है, वही सिद्धयोग है जो सभी प्रकार की बीमारियों, नशों व मानसिक तनाव से मुक्ति दिलाता है। साधक के शरीर का जो अंग बीमार होता है और पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर रहा है, कुण्डलिनी षक्ति मात्र उसी का योग करवा कर उसे पूर्ण रूपेण स्वस्थ कर देती है।
क्या इससे सभी प्रकार के नशों व मानसिक तनाव से भी मुक्ति मिल सकती है?
हां! यह सभी परिवर्तन वैदिक दर्षन के ठोस सिद्धान्तों पर आधारित है, इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं है। जहाँ भौतिक विज्ञान रुक जाता है, वहीं से अध्यात्म विज्ञान प्रारम्भ होता है। भौतिक विज्ञान अपूर्ण दर्षन है, जबकि भारतीय अध्यात्म विज्ञान अपने आप में संपूर्ण विज्ञान है। गुरु द्वारा चेतन किए गए मंत्र के मानसिक जाप से साधक सभी प्रकार के नषों से, बिना किसी कष्टदायक पीड़ा के सहज रूप से पूर्ण मुक्त हो जाता है। भगवद् गीता और पतंजलि योग सूत्र में इसका कारण बताते हुए स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य की तीन वृत्तियां होती है, सत्तोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी। हर मनुष्य में इन तीनों में से एक वृत्ति प्रधान होती है और शेष दो गौण। इस प्रकार मनुष्य में जो वृत्ति प्रधान होती है, वह जैसा खाना पीना माँगती है, षरीर को वह देना आवश्यक हो जाता है। अन्यथा शरीर में भंयकर पीड़ा होने लगती है। भौतिक विज्ञान के पास वृत्ति परिवर्तन की कोई विधि नहीं है, इस कारण चिकित्सक नशा छुड़वाने में असमर्थ रहते हैं। वैदिक दर्शन सभी प्रकार के नषों से पूर्ण मुक्त होने की क्रियात्मक विधि बताता है। भगवद् गीता के चौदहवें अध्याय में और पातंजलि योग सूत्र के कैवल्यपाद के दूसरे सूत्र में वृत्ति परिवर्तन की व्याख्या की गयी है। मंत्र के जाप से तामसिक और राजसिक प्रवृत्तिया षान्त होकर सात्विक प्रवृत्ति प्रभावी हो जाती है और साधक के खान-पान, आचार-व्यवहार में पूर्ण बदलाव आ जाता है।
और मानसिक तनाव?
आज संपूर्ण विश्व में भंयकर तनाव व्याप्त है और पश्चिमी देशों में मनोरोगियो की संख्या सर्वाधिक है। भौतिक विज्ञान नशे की दवाईयों के सहारे मानव के दिमाग को षान्त करने का असफल प्रयास कर रहे हैं। दवाई का नशा उतरते ही पहले से अधिक तनाव आ जाता है और उससे सम्बन्धित रोग यथावत बने रहते हैं। वैदिक मनोविज्ञान अर्थात् अध्यात्म विज्ञान, मानसिक तनाव को शान्त करने की भी क्रियात्मक विधि बताता है। भौतिक विज्ञान की तरह भारतीय योगदर्शन भी नशे को पूर्ण उपचार मानता है, परन्तु वह नशा ईश्वर के नाम का होना चाहिए, किसी भौतिक पदार्थ का नहीं। हमारे संतों ने इसे हरि नाम की ‘‘खुमारी’’ कहा है। सद्गुरुदेव श्री नानक देव जी महाराज ने कहा है - भांग-धतूरा नानका उतर जात परभात। नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात।।
यही बात संत कबीर दास जी ने कही है- ‘नाम-अमल’ उतरै न भाई। और अमल छिन्न-छिन्न चढ़ि उतरै। ‘नाम - अमल’ दिन बढ़े सवाया।।
भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने योगी की स्थिति का वर्णन करते हुए पाँचवें अध्याय के 21 वें श्लोक में ‘ नाम-खुमारी’ को अक्षय आनन्द कहा है और छठे अध्याय के 15, 21, 27 व 28 वें श्लोक में इसे परमानन्द पराकाष्ठावाली षान्ति, इन्द्रियातीत आनन्द, अति उतम आनन्द तथा परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनन्द कहा है। मैं मंत्र के रूप में हरि का जो नाम अपने शिष्यों को मानसिक रूप से जपने के लिए देता हूँ, उससे वे इस दुर्लभ आनन्द की स्थिति में पहुंच जाते हैं और सभी प्रकार के मानसिक तनाव और संबंधित रोगों से पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर लेते है।
आपका यह मानना है कि पूरा विश्व इस अद्भुत ज्ञान को प्राप्त करने के लिए भारत आएगा और भारत पुनः एक बार विश्व-गुरू की प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेगा। क्या ऐसा होगा?
ऐसा ही होगा और अगले कुछ वर्षों में यह संभव हो जाएगा। देखिए, इस युग का मानव शांन्ति चाहता है और भौतिक विज्ञान से अपेक्षा लगाए बैठा है। लेकिन जैसे-जैसे विज्ञान विकसित हो रहा है, वैसे ही शांति दूर हो रही है और अशान्ति फैल रही है। चूंकि शान्ति का सम्बन्ध अन्तर आत्मा से है, अतः विष्व में पूर्ण शांति मात्र वैदिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर ही स्थापित हो सकती है। अन्य कोई विचारधारा अथवा दर्शन यह काम कर ही नहीं सकता। इसलिए पूरे विश्व के सकारात्मक लोग भारत की पवित्र भूमि से ही इस ज्ञान को प्राप्त करेंगे। हमने उनसे तकनीकी ज्ञान सीखा है, अब हम उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करेंगे। संस्कृतियाँ आदान - प्रदान के सिद्धान्त पर चलकर ही जीवित रहती है। यदि हम लेते ही जाएगें और देने के नाम पर हमारे पास कुछ नहीं होगा तो हमारे देश और संस्कृति का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। पश्चिम के पास अपार भौतिक धन है, हमारे आध्यात्मिक ज्ञान को सीखने के लिए वह अपना धन हमे सौंप देगा। भारत से जितना धन अब तक बाहर गया है, वह ब्याज समेत वापस आएगा, तभी हमारे गरीब नागरिकों के कष्ट मिटेंगे और देश उन्नत होगा। इसमें ज्यादा समय नहीं लगेगा, आप देखते जाइये। लेकिन आज स्थिति बेहद खतरनाक है और आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सभी ओर से भारत पर शिकंजा कसा जा रहा है। आप क्या समझते है, मैंने भारत को एड्स मुक्त करने की घोषणा भावुकता में भर की है ? इसके पीछे मेरा गहरा मंतव्य है। अगर हम समय रहते एड्स पीड़ितों को सिद्धयोग के दिव्य प्रभाव के बारे में सूचित नहीं कर पाए तो देश में भयावह स्थिति पैदा हो जाएगी। जिस अपसंस्कृति का पोषण हो रहा है, उससे खतरा बहुत ज्यादा बढ़ जाने वाला है। लेकिन यदि एड्स रोगी मेरे दिए हुए मंत्र का नियमित जाप करता है तो वह चाहे किसी भी और कारण से मृत्यु को प्राप्त हो, लेकिन एड्स से हर्गिज नहीं मरेगा।
लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि एड्स उतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बताया जा रहा है।
एड्स से पीडि़त 90 प्रतिशत रोगियों की आयु 20 से 40 वर्ष की आयु के बीच के हैं। संपूर्ण युवा पीढ़ी पर खतरा मंडरा रहा है। इसे नजर अंदाज करना मूर्खता होगी। सिद्धयोग में दीक्षित होने के लिए कोई आर्थिक, सामाजिक अथवा धार्मिक बंधन तो नहीं है ?
वैदिक दर्शन किसी धर्म विशेष अथवा राष्ट्र विशेष मात्र के उत्थान की बात नहीं करता बल्कि संपूर्ण विष्व के कल्याण की कामना करता है और उसे भौतिक रूप में करके भी दिखाता है। यह मानवीय विकास और मानव दर्शन की बात करता है। सिद्धयोग से हर जाति, धर्म और देश का नागरिक लाभान्वित हो सकता है। शक्तिपात दीक्षा कार्यक्रम, जो मैं प्रत्येक गुरुवार को आयोजित करता हूँ, पूर्णतया निःशुल्क है इसलिए कोई आर्थिक बंधन भी नहीं है।
लेकिन भारत जैस विशाल देश में आप कैसे प्रचार कर पाएंगे?
मेरा काम भौतिक संसाधनों की कमी के कारण नहीं रुक सकता। इस देश में सच्चे और आस्तिक लोगों की कमी नहीं है, जो सिद्धयोग से लाभान्वित होकर स्वतः प्रचार कार्य में जुट जाएंगे। रही बात देश भर में फैले एड्स पीड़ितों तक पहुँचने की तो मैं यह बता देना चाहता हूँ कि अगर कोई रोगी, मेरी तस्वीर को अपने आज्ञा चक्र पर स्थिर करके नियमित ध्यान करेगा तो भी उसे पीड़ा से छुटकारा मिल जाएगा। मेरी संस्था की एक वेबसाइट
www.the-comforter.org है जिसमें ध्यान की विधि बताई गई है। इस वेबसाइट से भी काफी लोगों को लाभ पहुंचा है।
क्या सिद्ध योग का प्रचार-प्रसार देश भर में योग संस्थान खोलकर किया जा सकता है?
यह केवल गुरु-शिष्य परंपरा से ही संभव है। दुनिया के कई देशों में योग की कक्षाएं लगती है, योग के विद्यालय व विश्वविद्यालय है लेकिन फिर भी भारतीय योग दर्शन में वर्णित लाभ साधकों को नही मिल रहे हैं। योग के नाम पर मात्र कसरत करवाई जा रही है। यदि कक्षा लगाकर योग सिखाया जा सकता तो अमरीका के अधिकांश नागरिक योगी बन चुके होते। शारीरिक कसरत योग नहीं है। योग का अर्थ है आत्म-साक्षात्कार। इसके लिए सिद्ध गुरु की जरूरत है।